मैं पत्थर नहीं मैं कठोर नहीं
मैं साँसों की पहेली भी नहीं
मैं सिर्फ देह की मूरत नहीं
मैं एक वजूद हूँ
मैं कोई कठपुतली नहीं
मैं एक डोर हूँ
जो बांध कर रखती हैं सबको
मैं रास्ता नहीं मंजिल हूँ मैं
मैं एक पहचान हूँ
मैं हवा हूँ जो चलती रहती है
सदियों तक थकती नहीं रूकती नहीं
जितना जलती हूँ मैं
उतना निखरती हूँ मैं
मैं एक वक्त हूँ
मैं भी बिखरती हूँ कभी कभी
पर फिर उठकर खड़ी हो जाती हूँ
फिर जुड़ जाती हूँ सबको जोड़ती हूँ
मैं एक धागा हूँ
मैं कोई किस्सा और कोई कहानी नहीं
मैं पेड़ो पर लिपटी कोई बेल भी नहीं
मैं उर्वरि धरा, ब्रम्हांड का स्वरुप हूँ
मैं जननी हूँ
मैं फूलो सी कोमल भी हूँ
मैं पंखुडिओ सी नाजुक भी हूँ
मैं खुद से खुद को तलाशती हुई
मैं एक स्त्री हूँ...
दूर धरा सी फैली ममता और
प्यार लिए
अपनी बाहों को फैलाये हुए
मैं एक माँ हूँ.... मैं एक स्त्री हूँ