मां
की
पोटली
एक
दिन
यूं
ही
बैठे
बैठे
खोल
डाली
मां
की
पोटली
आश्चर्य हुआ
पोटली
को
जब
उठाया
काफी
वजन
था
उसमें
सोच
नही
पा
रही
थी
की
आखिर
क्या
है
इसमें
क्यूं
भारी
है
ये
इतना
उत्सुकता बढ़
गई
खोल
कर
देखने
की
खोला
तो
देखा
आंखे
बरस
पड़ी
उस
पोटली
में
कुछ
सपने
थे
जो
टूटे
हुए
एक
कोने
में
पड़े
थे
उनको
पूरा
करने
की
जद्दोजहद भी
दिख
रही
थी
कुछ
खाबो
को
मैने
जंजीर
से
बधे
हुए
देखा
बरसो
से
वो
बधे
थे
इसलिए
वो
जंग
खा
गए
थे
अरमान
तो
शायद
अनगिनत
थे
जो
जिम्मेदारियों की
बोझ से
दबे
पड़े
थे
आंसूओ
से
भीगे
कुछ
रूमाल
रखे
थे
जो
न
जाने
कितनी
रातों में
आंखो
की
पोर
को
पोछने
की
कथा
कह
रहे
थे
सोच
रही
थी
की
इतना
कुछ
उन्होंने अपनी
पोटली
में
छुपा
रखा
था
इतनी
भारी
पोटली
का
बोझ
सारी
जिंदगी
कैसे
उठा
रखा
था
ना
जाने
कितनी
राते
जागकर
बिता
रखा
था
वो
अक्सर
सोचती
होंगी
की
कट
जायेगी
ये
रात
भी
और
रोज
एक
नया
सवेरा
का
इंतजार
किया
होगा
उन्होंने जीवन
की
कथा
को
समझ
कर
शायद
रोज
एक
कहानी
लिखी
होगी
मगर
ये
तो
जिंदगी
की
कथा
थी
जो
रोज
एक
नही
कहानी
बन
कर
अनकही
रह
गई
थी
।।