एक था बचपन….
जो सिर्फ मुस्कुराता था
तितलियों के पीछे भगता था
कागज़ की कश्ती और कागज का जहाज
ही उसकी दौलत थी
कटी पतंगों के पीछे अपने
दोस्तो के संग भगता था
मिल जाती गर पतंग तो खुशी
में आसमा छू लेता था
ना कोई तनाव था ना कोई
उलझन बस खुलकर वो
अपना बचपन जीता था
एक थी...जवानी जो पल
में मुस्कुराती तो पल में रोती थी
जिंदगी में कुछ पा लेने की होड़ में
बस दिन रात लगी रहती थी
किसी को एक नजर का प्यार
समझकर नादानी कर बैठती थी
उसके लिए जीने मरने की कसमे
खा कर उसके साथ जीती थी
जीवन कुर्बान करने की सोचती थी
समय बदला समझदारी आयी
सिर पर कुछ ज़िम्मेदारी आयी
फिर से कुछ मसले आ गए
जिसको वो सुलझाने निकल पड़ी थी
नौकरी शादी घर गाड़ी और बच्चे
बस इसी में उलझी रहती थी
सुबह से शाम तक काम करके
सभी बातों को तमाम करके
रात में थक कर सो जाती थी
फिर एक था...बुढापा
जो लगता था कि कब खतम हो जाए
ना कुछ पाने की ख्वाहिश
ना जीने की कोई आस
हमसफर ने भी साथ छोड़ दिया था
सभी रिश्तो ने मुँह मोड़ लिया था
अकेले ही खुद से उलझे जा रहा था
बेटियां अपने घर चली गयी थी
घर की रौनक साथ ले गयी थी
बहु बेटे की व्यस्तता के कारण
उनसे कुछ कह नही पा रहा था
की वो कितना अकेला था
कभी खांस कर जी रहा था
कभी दर्द से कराह कर रात काटता था
नींद भी अब बड़ी मुश्किल से आती थी
नाती-पोतो की खातिर थोड़ा खुश
हो लेता था उनके साथ थोड़ा जी लेता था
अंत मे क्या मिला जीवन के ये सारे पड़ाव
बस भागदौड़ में ही बीत गए
और हम खाली हाथ आये थे
और खाली ही हाथ चले गए ...।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें