सोमवार, 13 अप्रैल 2020

उलझन





जाने किस उलझन में उलझी हूँ 

जाने किधर जाना हैं 

कौन सी है मंजिल 

किधर है रास्ता 

कुछ भी तो नहीं पता 

क्या हैं क्या नहीं 

सब उलझ गया है 

खुद से लड़ रही हूँ

खुद से झूझ रही हूँ

नहीं पता मुझे जीत पाऊँगी

क्या खुद को मैं  कभी 

या हार कर सब खो दूंगी 

या ये  उलझन यूं ही बनी रहेगी 

ये जिंदगी यूं ही उलझी रहेगी 

ना  साथी है ना  ही हमराज कोई 

कोई उम्मीद कोई सवेरा 

अँधेरा ही अँधेरा हैं हर तरफ 

क्युकी ये रौशनी भी एक उलझन है 

समझ- समझ कर सबको 

थक गयी हूँ कौन समझेगा मुझे 

क्यूकी ये समझ भी  एक उलझन है 

थक गयी हूँ अपनों से और 

इन अनसुलझे रिश्तो से 

कुछ अनसुलझी बातो से 

कुछ अनकहे एहसासो से 

ये सब एक उलझन है 

शायद ये जिंदगी  ही एक उलझन है 


मैं और तुम






मैं और तुम बस यही है दुनिया 

दो औंस की बूंदे थे 

मिलकर एक हो गए मैं और तुम 

एक रास्ते के दो मुसाफिर 

मंजिल पर आकर मिले 

जिंदगी जिधर ले गयी चल दिए मैं और तुम  

दुःख  का सागर हो या  ग़म का दरिया 

जो भी मिला सह गए मैं  और तुम 

ख्वाबों को सजाया मिलकर 



उसको मिलकर जी गए मैं और तुम