गुरुवार, 2 सितंबर 2021

कुछ अपेक्षाएं मेरी ...

 


कुछ अपेक्षाएं मेरी ...

 

कुछ उम्मीदों ने आकर

 फिर से घेरा मुझे

कुछ अपेक्षाओं ने फिर से

जकड़ डाला मुझे

मैं निकल जाना चाहती हूं

कही दूर खुद की तलाश में

पर जा नहीं पाती

 लौट आती हूँ फिर

वही उसी मोड़ पर चाहे

कितनी भी कोशिश कर लूं

खुद को खुद से जीतने की

मगर हार ही जाती हूँ

दबा जाती है फिर से मुझे

कुछ अपेक्षाएं  मेरी

अंदर एक चीख मची है

मन  होता है कस के

चिखु चिल्लाउ लेकिन

कौन सुनेगा मुझे ..क्योंकि

बाहर से तो सब रोशन है

शोर तो अंदर है उसे कौन

देखता है कौन सुनता है

सोचती हूँ पा लूँ  विजय खुद पर

कर लूं स्वयं को अलग

सबसे पर नहीं कर पाती

फिर से अपेक्षाएं घेर लेती है

और यही कटु सत्य है

हम सब फसे है अपेक्षाओं में

जीवन की आकांक्षाओं में

मन बोझिल हो गया है

इन सब को झेलते झेलते

खुद को खो दिया सबको पाते पाते

लड़ाई जारी है खुद पर विजय पाने की

खुद से खुद को ढूंढ लाने की

लेकिन कहीं ऐसा ना हो कि

रौंद डाले मुझे फिर से कुछ

अपेक्षाएं मेरी ।

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